इकदास्तां ,भाग=4
खामोशी से सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा था विजय। वो भी बिल्कुल खामोशी से उस धुएँ को ऐसे जर्ब करती जा रही थी,जैसे वो धुआँ न होकर कोई जीवन दायनी हवा हो।
आठ बज गए थे, शायद माँँ और भाभियाँ इंतजार करके थक गए थे। माँ को ये चिंता थी कि विजय ने सुबह से कुछ नहीं खाया है,और उसकी तबियत भी ठीक नहीं है। पता नहीं बहू ने भी सुबह से कुछ खाया है या नहीं।
विजय विजय, आ जा, बेटा रोटी खा ले।
आवाज़ खामोशी को तोड़ती हुई वापिस आ गई थी,शायद विजय वहाँ मौजूद ही नहीं था।
माँ ने कुछ मिनिट बाद फिर आवाज़ लगाई थी,इस बार रजनी
ने थोड़ा सकुचाते हुए उसके हाथ को हिलाया था।
हम्म, वो एकदम चौंका था। उसकी आँखों में हल्की सी नमी और एक प्रश्न था।
आपकी माँँ बुला रही हैं आपको। क ई आवाजें दे चुकी हैं।
वो बिना कुछ बोले नीचे चला गया था।
नीचे काफी देर एक ही मुद्रा में बैठे रहने से रजनी के पैरों मे अजीब सी झनझनाहट हो रही थी। वो बहुत मुश्किल से घिसटती हुई सी अंदर गई थी ,और पंलग पर बैठकर धीरे धीरे पैरों को हिलाने लगी थी।बड़ा ही अजीब सा महसूस हो रहा था दोनों पैरों में मन की स्थिति भी ऐसी थी कि न चाहते हुए भी आँसू ढलक आये थे। दसेक मिनिट बाद पैर तो ठीक हो गए थे पर मन की स्थिति वहीं रही थी। उसे कितना समय हो गया था यहाँ आये हुए पर इतने जनों के बीच में भी वो खुद को अकेला ही महसूस कर रही थी। जिसके खातिर इन लोगों से उसका रिश्ता बनता वो तो खुद अजनबी सा बेगानगी सी दिखा रहा था। उसे यहाँ लाये ही क्यों, जब ये नहीं चाहता तो। सात बरस हो गए थे, विवाहिता होकर भी विधवा जैसी ज़िंदगी जी रही थी मायके में। वो तो बाऊजी और माँ का सहयोग था कि अपनी पढ़ाई को आगे रख पाई थी।फिर ढाई साल का कटिंग टेलरिंग का डिप्लोमा भी कर लिया था। एक संस्था के तहत नौकरी भी मिल गई थी। फिर भी आसपास के लोगों के प्रश्न और बेधंती नजरे,उसे और परिवार वालों को विचलित कर देती थी। शादी वाली रात ही विजय ने उसे कह दिया थाकि ये शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई है,इस लिए मेरा आपसे कोई वास्ता नहीं रहेगा।आप जानें और मेरे घरवाले जाने।
उसके बाद से सच में ही उसनें कोई वास्ता नहीं रखा था।यहाँ तक कि पगफैरों की रस्म के लिए भी सास और जेठ ले कर गए थे उसे।सात महीने सुसराल रूकी रही पर ये शख्स घर नहीं आया था।हाँ सास जरूर जाती थी और आकर कह देती कि इसे बहुत जरूरी काम है,इसलिए न हीं आ पा रहा। रजनी उसके जरूरी काम और सास के बहाने से भी अच्छे से परिचित थी।पर वो किसी को कुछ भी कहनें की स्थिति में ही नहीं थी। मायके वाले भी शायद सब जान कर भी अंजान बने हुए थे।वो भी क्या करते छह बेटियाँ और दो बेटे। बड़ी बेटी ही घर बैठ जाती तो बाकी की बेटियों के रिश्ते कैसे होते।समाज की परंपरा की वेदी पर आहूति चढ़ गई थी रजनी।
घर के सारे काम करना और परिवार की सेवा करना जैसे उसका धर्म ही बन गया था। जेठ सारे नौकरी पेशा थे,अपनी अपनी पत्नियों को साथ ही रखते थे।वो और सास ही यहाँ थे।कभी कोई तो कभी कोई जेठ जिठानी बीस पच्चीस दिन में आते रहते थे। उनकी सेवा टहल और साथ साथ में खाने पीने का बना कर देना।पेशेवर सी नौकरानी बना छोड़ा था विजय साहब की नापंसद ने।
नौं बज गए थे,किसी ने अभी तक खाने को भी नहीं पूछा था।प्यास बहुत लगी हुई थी।यहाँ छत पर पानी भी नहीं था। दुखी सी रजनी लेट गई थी कमरे में डली चारपाई पर ही। पंखा भी नहीं चलाया था। वो फिर से अतीत में खोने ही वाली थी कि दरवाजे पर एक दस्तक ने उसे कहा था कि नीचे माँ बुला रही है, खाना खा लो जाकर।
भूख नहीं है, मन की कड़वाहट और क्षुब्धता जुबान पर उतर आई थी।
विजय चुपचाप बाहर बिछी चारपाई पर लेट गया था। तभी माँ ऊपर आई थी।
रजनी रोटी खा ले बेटी नीचे चल के।
मुझे भूख नहीं है माँ जी।
थोड़ी तो खा ले बेटा।
जी बिल्कुल भी भूख नहीं है।
चलो तुम लोग आराम कर लो। वो नीचे चली गई थी।
रजनी को ऐसा अहसास हुआ था,कि बाहर किसी ने जग से पानी डालकर पीया था।उसे और तेज प्यास का आभास हुआ था। उसने खिड़की से देखा था,विजय पानी पीकर सो गया था।शायद कोई ई दवा भी ली थी उसने। रजनी ने बाहर आकर बचा सारा पानी पी लिया था।और दोबारा अंदर जाकर लेट गई थी।उसने पंखा भी चला लिया था।खुले दरवाज़े को खुला ही रहने दिया था उसनें।
उसे रह रहकर वही सब याद आ रहा था ।यही गरमी के ही दिन आज से छह साल पहले।सारा दिन काम कर कर के उसे हैजा हो गया था।दवा दिलाने की बजाय सास ने ताने देने शुरू कर दिए थे।उन तानों में ही उन्होंने अपनी हकीकत खुद बता दी थी।पूरा साल हो गया है, तेरे कारण मेरे बेटे का घर भी छूट गया है।
तो मुझे क्यों बिठा रखा हैं यहाँ पर?पहली बार उसकी जुबान खुली थी।
निकल जा मैने कौनसा बेड़ियां डाली हुई है।
जिस हालत में थी उसी हालत में उठ खड़ी हुई थी। पर्स में कुल मिलाकर पंद्रह रूपये बचे थे। उन्हें निकाल कर अस्त व्यस्त कपड़ो में ही घर से निकल पड़ी थी। पैसे निकालते वक्त तो सोचा था,अपने मायके जाऊँगी, फिर जाने क्या सोच कर मन विशुब्ध सा हो गया। शारीरिक हालत भी बहुत पस्त हो चुकी थी। दो दिन से अंदर कुछ नहीं गया था।ऊपर से उल्टियाँ थी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। ताँगे में बैठकर बस अड्डे पहुँच गई थी। अड्डे पर उतरते ही जोर का चक्कर आया था और सिर पकड़ कर बैठ गई थी। कुछ देर बैठने के बाद सामने पानी का नल दिखाई दिया था । घिसटती हुई सी नल तक पहुँची थी। दो घूट पानी पीकर उसने खड़ा होना चाहा पर उठ ही नहीं पाई।
समझ और सार्मथ्य दोनों जवाब दे गए थे। संध्या होने वाली थी। तभी दो तीन सफेद पगड़ी वाले बंदे वहाँ से गुजरे थे।
बीबी कौन है तूं? एक बजुर्ग ने कहा था।
बोलने की हिम्मत ही नहीं बची थी।
चाचा ये तो किसी भले घर की लड़की है,और बीमार लगती है।
वो बजुर्ग मुड़ कर उसके करीब आया था।
पुतर तू रजनी तो नहीं है,अवतार सिहँ की बेटी।
निर्बल हाथों को जोड़ने की कोशिश की थी उसनें।
ओह , वे सभी उसे सहारा देकर बस तक ले आये थे ,उसकी हालत देख कर कंडक्टर ने एक पूरी सीट ही दे दी थी। रिक्शे में बैठाकर चाचा सज्जन पाल घर छोड़ ग ए थे और बाऊजी को सुना भी गए थे।
औलाद की संभाल न हो सके तो पैदा होते ही गला दबा देते,अवतार सिहँ।
भाई साहब पर ये तो अपने सुसराल में थी।
मैं अभी डाक्टर हरबंस से दवाई दिलवा आया हूँ, इसको हैजा हो रखा हे।रब से डर अवतार सिहँ जवान लड़की बस अड्डे वाली सड़क पर लावारिस की तरह पड़ी थी। मैं सुबह आऊँगा।
बाऊजी पछतावे और गुस्से से जल रहे थे।
अगले दिन वो अपने होश में हुई तो माँ ने सारी बात पूछी थी।
तूने पहले कभी बताया नहीं, चिठ्ठी ही लिख देती।
किसे चिठ्ठी लिखती माँ, मैने तो तुम्हें पहले दिन ही बता दिया था।पर तुम्हें शायद और ही चिंताएं थी। मै तो आज भी यहाँ नहीं आती,बस पता नहीं कौन से करम थे के चाचा सज्जन पाल की नज़र मुझ पर पड़ गई।
माफ कर दे पुतर सारी गलती मेरी ही है।
खामोश आँसू बहाती पड़ी रही थी। चाचा सज्जन सुबह सुबह ही आ गए थे। सारा किस्सा सुन कर उन्होंने ही लड़की को आगे पढ़ाने की सलाह दी थी।चाचा के कहने पर ही बाऊजी ने दसवीं के बाद उसे सिलाई कढाई का डिप्लोमा करवाया था। बिना किसी गुनाह या कसूर के उस के अंदर हरपल यही भाव रहते थे।छोटी बच्चियों को पढ़ा कर सिलाई कर के,घर के काम कर के,वो इस अनकिए गुनाह के बोझ को हल्का करने की कोशिश करती।ज़िंदगी यूं ही चल रही थी।उसकी सास दो बार माफी माँगने भी आई थी उसके मायके। पर वो अपने लक्ष्य पर ही लगी रही। माँ ने भी कह दिया था, बहन जी शादी आपके बेटे के साथ की थी हमने, अगर गलती ही माननी है तो वही आये। हम भेज देंगे।
विजय को नहीं आना था न आया।उसकी छोटी बहन की शादी भी हो गई। निमन्त्रण भी भिजवाया, पर उसकी सास और जेठ के सिवाय कोई नहीं आया। तीसरी बहन की भी शादी हो गई थी।रजनी नौकरी कर रही
थी।साथ में घर में बाहर के लोगों के कपड़े सिलती थी,उसके हाथ में एक वरदान था,जिस भी कपड़ें को हाथ लगाती कपड़ा संवर जाता था।
सात सालों बाद कल उसके दोनों जेठ बड़े इकरार इसरार से उसे लेकर आये थे।बाऊजी ने भी पहली बार उसकी मर्जी पूछी थी।
उसने भी कह दिया था, सफ्ताह भर की छुट्टी लेकर चली जाती हूँ,इन लोगों का व्यवहार देख लूंगी।नहीं तो वापिस अपनी नौकरी पर आ जाऊँगी।
उसे फिर प्यास लगी थी।पर वो दबा गई थी। हालातों ने उसे भूख प्यास दबाना सिखा दिया था। विचारों के मकड़जाल में घिरी रजनी को पता न हीं कब नींद आई थी। सुबह भी वो सो ही रही थी कि उसे कुछ धुआँ धुआँ सा लगा था अपनी साँसों में।
उठ कर देखा तो बाहर विजय सिगरेट पी रहा था। बाथरूम बाहर ही था। वो जाकर हाथ मुहँ धोकर आ गई थी। उसने विजय से टाईम पूछा था।
सात बज गए ह़ै।
गर दिक्कत न हो तो एक कप चाय बना देंगी, मुझे सिरदर्द हो रहा है।
जी ।कहकर वो नीचे चली गई थी।वो चाय का एक कप बना लाई थी,और उसने विजय को दे दिया था। वो अंदर चली गई थी।।।
क्रमशः
कहानी, इक दास्तां।।
लेखिका, ललिता विम्मी
भिवानी(हरियाणा)
Chirag chirag
02-Dec-2021 06:38 PM
Nice written
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Swati chourasia
09-Oct-2021 08:43 PM
Very nice
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Fiza Tanvi
08-Oct-2021 05:01 PM
Bahut sunder
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